Thursday, May 24, 2018

General - मुन्सी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता


मुन्सी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता*

_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,_
        _आप मुझे पेहचानते हो_
        _बस इतना ही काफी है._
_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_
        _क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_
        _उसने उतना ही पहचाना मुझे._

_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_
        _शामें कटती नहीं और_
        _साल गुजरते चले जा रहें है._
_एक अजीब सी_
_दौड है ये जिन्दगी,_
        _जीत जाओ तो कई_
        _अपने पीछे छूट जाते हैं और_
_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._

_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अकसर,_
        _क्योंकी मुझे अपनी_
        _औकात अच्छी लगती है._
_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_
        _चुपचाप से बहना और_
        _अपनी मौज मे रेहना._

_ऐसा नहीं की मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_
        _पर सच कहता हूँ_
        _मुझमें कोई फरेब नहीं है._
_जल जात है मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_
        _क्यों की एक मुद्दत से मैंने न मोहब्बत_
        _बदली और न दोस्त बदले हैं._

_एक घडी खरीदकर_
_हाथ मे क्या बांध ली_
        _वक्त पीछे ही_
        _पड गया मेरे._
_सोचा था घर बना कर_
_बैठुंगा सुकून से,_
        _पर घर की जरूरतों ने_
        _मुसाफिर बना डाला मुझे._

_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_
        _बचपन वाला इतवार_
        _अब नहीं आता._
_जीवन की भाग दौड मे_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_
        _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
        _आम हो जाती है._

_एक सवेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_
        _और आज कई बार बिना मुस्कुराये_
        _ही शाम हो जाती है._
_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते निभाते,_
        _खुद को खो दिया हम ने_
        _अपनों को पाते पाते._

_लोग केहते है_
_हम मुस्कुराते बहुत है,_
        _और हम थक गए_
        _दर्द छुपाते छुपाते._
_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_
        _लापरवाह हूँ फिर भी_
        _सब की परवाह करता हूँ._

_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_
        _कुछ अनमोल लोगों से_
        _रिश्ता रखता हूँ._

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